राष्ट्रीय

सरकारी दावों के बावजूद गेहूं-सरसों की बुवाई के वक्त खाद की कमी से जूझ रहे हैं किसान…

नई दिल्ली/भोपाल। मप्र से लेकर राजस्थान, यूपी, बिहार और हरियाणा तक के किसान इस समय डीएपी (डाई-अमोनियम फॉस्फेट) की किल्लत से जूझ रहे हैं। डीएपी दूसरी सबसे ज्यादा खपत वाली खाद है। इसके लिए किसानों को दो-दो दिन लाइन में लगना पड़ रहा है और कुछ सूबों में तो पुलिस के पहरे में इसका वितरण हो रहा है। तमाम सरकारी दावों के बावजूद आखिर ऐसा क्यों है कि गेहूं और सरसों जैसी महत्वपूर्ण फसलों की बुवाई के वक्त किसानों को डीएपी संकट का सामना करना पड़ रहा है। कई राज्यों में किसानों ने 1350 रुपये वाले 50 किलो डीएपी बैग को ब्लैक में खरीदने के लिए दो-दो हजार रुपये चुकाए हैं, क्योंकि अगर इसका इस्तेमाल नहीं करेंगे तो फसलों के उत्पादन पर बुरा असर पड़ सकता है।
हालात ये हैं कि भाजपा और कांग्रेस ही नहीं दूसरी पार्टियों के शासन वाले सूबों में भी किसानों को डीएपी की कमी का सामना करना पड़ रहा है। वजह ये है कि देश में डीएपी की जितनी मांग है इसकी उतनी उपलब्धता नहीं है। ऐसे में अधिकांश राज्यों को उनकी जरूरत जितनी डीएपी की आपूर्ति नहीं हो पाई है। भारत सरकार अपने किसानों को डीएपी उपलब्ध करवाने के लिए आयात पर निर्भर है और इस साल इसके आयात में गिरावट आई है। जिसका असर साफ-साफ ग्राउंड पर दिखाई दे रहा है। लेकिन ऐसा क्यों हुआ? हम आजादी के 77 साल बाद भी किसानों को खाद तक उपलब्ध नहीं करवा पा रहे हैं। किसानों को इसके लिए लाठी खानी पड़ रही है।

राज्यों में आधी सप्लाई भी नहीं
देश में डीएपी की कमी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कई राज्यों को जरूरत की आधी खेप भी नहीं पहुंची है। भाजपा शासित मप्र में सितंबर 2024 के दौरान 1,57,000 मिट्रिक टन डीएपी की जरूरत थी, जबकि उपलब्धता सिर्फ 69,702.9 मिट्रिक टन की ही हो पाई।  भाजपा के शासन वाले यूपी में सितंबर 2024 के दौरान 1,95,000 मिट्रिक टन डीएपी की जरूरत थी और यहां पर 1,35,474 टन की ही उपलब्धता हो पाई।  भाजपा और उसके सहयोगियों के शासन वाले महाराष्ट्र में 65,000 मिट्रिक टन डीएपी की जरूरत थी, जबकि उपलब्धता सिर्फ 15,671.7 मिट्रिक टन की ही हो सकी।  भाजपा के शासन वाले छत्तीसगढ़ में सितंबर 2024 के दौरान 10,000 मिट्रिक टन डीएपी की जरूरत थी, जबकि उपलब्धता सिर्फ 6,840.1  मिट्रिक टन की ही रही।  कांग्रेस शासित कर्नाटक में सितंबर 2024 के दौरान 41.630 मिट्रिक टन डीएपी की जरूरत थी, जबकि उपलब्धता सिर्फ 23,367.96 मिट्रिक टन की ही थी।  कांग्रेस शासित तेलंगाना में सितंबर के दौरान 20,000 मिट्रिक टन की जरूरत के मुकाबले 12,139.7 मिट्रिक टन की ही उपलब्धता रही। टीएमसी के शासन वाले पश्चिम बंगाल में सितंबर 2024 के दौरान 32,680 मिट्रिक टन की जरूरत के मुकाबले सिर्फ 27,830.61 मिट्रिक टन डीएपी पहुंचा।

डीएपी का सियासी दांव
किसानों के मुद्दे सियासी तौर पर बेहद संवेदनशील होते हैं। इस वक्त गेहूं और सरसों की बुवाई चल रही है। ऐसे में इतनी महत्वपूर्ण खाद की शॉर्टेज से किसान परेशान हैं। डीएपी की किल्लत हुई तो विपक्ष ने सरकार को घेरने में देर नहीं लगाई। कांग्रेस ने आरोप लगाया कि सरसों, गेहूं और कुछ अन्य फसलों की खेती के लिए जरूरी डीएपी की कमी ने किसानों को लंबी कतारों में खड़े होने के लिए मजबूर किया है। कई जगहों पर स्थिति गंभीर हो गई है और किसान विरोध प्रदर्शन करने के लिए मजबूर हैं।

डीएपी के लिए आयात पर निर्भरता
भारत में यूरिया के बाद सबसे ज्यादा खपत डीएपी की होती है। हर साल लगभग 100 लाख टन डीएपी की मांग है। जिसका अधिकांश हिस्सा आयात से पूरा किया जाता है। इसलिए आयात प्रभावित होते ही संकट बढऩे की संभावना बढ़ जाती है। साल दर साल डीएपी के लिए भारत की निर्भरता आयात पर बढ़ रही है। रसायन और उर्वरक मंत्रालय के मुताबिक साल 2019-2020 में हमने 48.70 लाख मिट्रिक टन डीएपी का आयात किया था, जो 2023-24 में बढक़र 55.67 लाख मिट्रिक टन हो गई। साल 2023-24 में में डीएपी का घरेलू उत्पादन महज 42.93 लाख मिट्रिक टन था।

संकट क्यों पैदा हुआ
 रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय ने अपने बयान में इस साल डीएपी संकट होने की वजह बताई है। सरकार ने कहा कि जनवरी से चल रहे लाल सागर संकट के कारण डीएपी का आयात प्रभावित हुआ, जिसकी वजह से उर्वरक जहाजों को केप ऑफ गुड होप के माध्यम से 6500 किलोमीटर की ज्यादा दूरी तय करनी पड़ी। इस तथ्य पर ध्यान दिया जा सकता है कि डीएपी की उपलब्धता कई भू-राजनीतिक कारकों से कुछ हद तक प्रभावित हुई है। जिसमें से एक यह भी है। उर्वरक विभाग द्वारा सितंबर-नवंबर, 2024 के दौरान डीएपी की उपलब्धता में वृद्धि करने के लिए प्रयास किए गए हैं। उधर, उर्वरक विभाग के मुताबिक डीएपी की कीमत सितंबर, 2023 में 589 अमेरिकी डॉलर प्रति मीट्रिक टन से लगभग 7.30 फीसदी बढक़र सितंबर, 2024 में 632 अमेरिकी डॉलर प्रति मीट्रिक टन हो गई थी। हालांकि, अगर वैश्विक बाजार में डीएपी सहित पीएंडके उर्वरक की खरीद कीमत बढ़ती है, तो कंपनियों की खरीद क्षमता प्रभावित नहीं होती है। दाम बढऩे की बजाय कोविड काल से डीएपी की एमआरपी 1350 रुपये प्रति 50 किलोग्राम बैग बरकरार रखी गई है।

मांग-आपूर्ति में 2.34 लाख मिट्रिक टन का गैप
 दरअसल, देश के कई हिस्सों में इस समय डीएपी का जो संकट दिखाई दे रहा है उसकी शुरुआत सितंबर में ही हो गई थी। आंकड़े बता रहे हैं कि डीएपी की जरूरत और उपलब्धता में तब 2.34 लाख मिट्रिक टन की भारी कमी थी। इसका असर अक्टूबर में भी देखने को मिला है। पुलिस के पहरे में डीएपी वितरण की जो तस्वीरें आ रही हैं उसकी तस्दीक मांग और आपूर्ति के आंकड़े कर रहे हैं। सितंबर 2024  में 9.35 लाख मिट्रिक टन की जरूरत थी जबकि उपलब्धता सिर्फ 7.01 लाख मिट्रिक टन की रही।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button